"नही अब बिलकुल नही" बहुत गुस्से में तस्लीमा ने अपने शौहर से कहा, उसका शोहर रिज़वान बहुत सादगी से बोला लेकिन तस्लीमा क्यों? क्यों डिवोर्स लेना चाहती हो? मेने तो कभी तुम्हे उफ़्फ़ तक नही कहा, तुमने जो कहा उस हर चीज़ को माना है फिर क्या हुआ? तस्लीमा ने 2 तुक कहा मुझे आज़ादी से चाहये समझे, मुझे तुम इस फ्लैट में बंद करके नही रख सकते,मुझे अपने हक़ के लिए आवाज़ उठानी है,मुझे आज़ादी चाहये,तुम और तुम्हारा दकियानूसी मज़हब मुझे नही रोक सकता, समझ आयी बात तुम्हें, रिज़वान रोने लगा बोला, हमारे मासूम बच्चों का क्या होगा? ये सुनकर तस्लीमा झटककर पलटी और अपना सामान उठाकर दरवाज़े को लगभग रिज़वान के और स्कूल गये हुए बच्चों के ऊपर डाल गयी, अभी उसके दो मासूम शायद उस बोझ को संभालने के किये शायद तैयार नही थे जिस बोझ को तस्लीमा अपने बच्चों पर डाल गयी, तस्लीमा दरवाज़े को पीछे धक्का देकर बाहर निकल गयी जहा जाकर उसे अपने संघटन "स्वतंत्रता अभियान" की अध्यक्ष का वो बयान याद जिसमें उन्होंने आडम्बरों को पीछे धकेल आगे बढ़ने की बात कही थी, वो आज अपने आप को बहुत हल्का महसूस कर रही थी, मानों वो उड़ जायगी,उसे एक आज़ादी का ख्याल आ रहा था और ये वही थी जो उसके संघठन ने दिलाने की उसे बात कही थी।
वो तेज़ तेज़ कदमों के साथ रिक्शा से उतरने के बाद जल्दी से अपने संघठन के ऑफिस पहुंची, वहां जाकर उसने एक भरी मीटिंग में जाकर अपनी हेड को गले लगा लिया और खिलखिला कर हंसने लगी,उसकी हेड अस्मा ज़हीर एक पढ़ी लिखी , "मॉडर्न" , धर्म के आडम्बरों के ख़िलाफ़ लड़ने वाली एक नारी सशक्तक्तिकरण संघठन की अध्यक्ष ,उससे बोली "क्या हुआ बोलो तो तस्लीमा" , मै अपने पिछड़ेपन को पीछे छोड़ आयी, छोड़ आयी वो बच्चे को पालने वाली ज़िन्दगी,चूल्हा चौका, अब मैं आज़ाद हूँ, इतना सुनते अस्मा ज़हीर बहुत खुश हुई और बोली "वाह वाग लेकिन अभी ये शुरुआत है और उसे छोड़ दो अभी" जी बिलकुल तस्लीमा ने कहा, इतना सुनकर अस्मा ने उसका हाथ उठाया और वहां मौजूद लोगों से कहा "आज से तस्लीमा भी "आज़ाद" है, कुरीतियों से, आडम्बरों से, कुंठाओ से बच्चों के ढेर से अब अपनी मर्ज़ी की ज़िंदगी, अपनी मर्ज़ी क़ि शादी सब हक़ अपने कोई रोक टोक नही कोई रुकावट नही धर्म की भी नही, यही तो हम चाहते है और इतना सुनते ही हौल तालियों से गूँज उठा, तस्लीमा और अस्मा समेत तमाम औरतें बहुत खुश थी।
तस्लीमा ने थोड़ी ही देर बाद बिना धार्मिक बध्याओं को माने सरकारी डिवोर्स अपने पति को भेज दिया,और उससे "गुज़ारे भत्ते" की भी मांग करि,बस वो नोटिस कुछ ही दिनों में अपना काम दिखा गया और सरकारी तौर पर तस्लीमा अब तलाक़शुदा थी, और धार्मिक ऐतबार से खर्च भी उसे मिल रहा था, अब तेज़ी से गुज़र रहे वक़्त के साथ तस्लीमा उस संघठन की उपाध्यक्ष बन गयी, और टीवी डिबेट्स पर आडम्बरों पर जवाब देने और कट्टरपंती मुस्लिमों को जवाब देने भी वही जाती थी, वही उन्हें हर बात का मुंह तोड़ जवाब देती यानी वो अपना मज़हब,घर, बच्चे और पुरानी ज़िन्दगी अपने घर के दरवाजे के पीछे के छोड़ आयी थी, लेकिन उसे एक कमी महसूस हुई पता नही क्या वो अपने संघठन में बहुत मायने रखने लगी थी, तो उसे वक़्त कम ही मिलता था इन सब चीज़ों का लेकिन फिर भी उसे एहसास ज़रूर होता था, लेकिन उससे भी ज़्यादा तस्लीमा कुछ भी थी एक शरीफ औरत थी, वो चीज़ों को पढ़ने लगी धार्मिक विषयों को टटोलने लगी लेकिन वो किसी भी धर्म को न मान "नास्तिक" बन चुकी थी, इस बीच वो सैकड़ों औरतों को अपने वाली "आज़ादी"दिल चुकी थी,अब उसे जो कमी,जो एहसास महूसस हो रहा था, क्यों पता नही लेकिन और औरतों देख वो भी खुश हो लेती थी की मेने एक कोशिश की है।
किसी काम से बाहर गयी वो काफी देर में ऑफिस लौटी तो उसने ऑफिस में सन्नाटा देखा, वो उलटी तरफ गयी कुछ नही,मगर वो जैसे ही मुड़ी उसने ऑफिस के अंदर नज़र घुमाकर देखा की, उसके संघटन अध्यक्ष "अस्मा ज़हीर" अपने चौकीदार से लिपटी हुई थी, ये देख कर वो वही रुक गयी,जाम सी हो गयी मानों एक आफत हुई हो, उसके मुंह से अलफ़ाज़ नही निकलें ,वो फिर भी लगभग दहाड़ कर बोली "अस्मा" बस इतना कहना था कि अस्मा हड़बड़ा गयी,कुछ समझ नही पायी,वो बाहर आ गयी और तभी तस्लीमा बोली क्या हो रहा था ये, तुम तो कहती हो की मर्द गलत होते है,धर्म ने हमें जकड़ा है, अस्मा बोली "व्हाट अ बिग डील" क्यों हल्ला मचा रही हो, अरे भूख न मिटाऊं अपनी ,तसलीमा बोली ये गलत है,
किसने कहा मैं नही मानती और सब करते है मेने किया तो क्या बस शादी ही तो नही है,मुझे बन्धना नही है अस्मा ने कहा, तस्लीमा छी धिक्कार है तुम पर ये कह कर उसने अस्मा को कहा जा रही हूँ इस गन्दी जगह से बाहर मै, और वो मुड़ गयी तभी अस्मा बोली जयगी कहा सब छोड़ दिया तूने,ये सुनकर तस्लीमा जम गई मानों वक़्त रुक गया और सोचँव लगई क्या गलती की थी मेरे बच्चों ने कुछ नही,मेरे शोहर ने उफ़ तक नही की,मासूमों की गुनहगार हूँ मै कोनसी आज़ादी? केसी आजादी?
तस्लीमा आगे जाने ही वाली थी की आवाज़ आयी "माँ माँ" तस्लीमा मुड़ी और एक भयंकर ख़्वाव टूट गया उसकी आँख खुल गयी, वो झटके से उठी और उसकी नज़र घड़ी पर गयी वो 3 बजा रही थी उसका ध्यान अपने बच्चों पर उनमें से एक के नींद में माँ बोलते हऔर बेड पर सोये अपने शोहर पर गयी, वो उठी और साँस क़ाबू में करि देखा तो 23 सितम्बर थी, वो भयंकर ख़्वाब की याद को भूलती हुई, अपने दिल सहमा रही थी,और उसने याद किया कि अपने बच्चों को स्कुल छोड़ने के बाद उसे अपने स्कुल भी जाना है छोटी बच्चियों को पढाना भी है और अपने बच्चों को भी पढाना है लेकिन इससे ज़्यादा और क्या आज़ादी चाहते है लोग पता नही......
असद शैख़